फूल बड़े नाज़ुक होते है,
आते-जाते जब भी कभी पड़ती है नज़र,
कहीं किसी फूल पे,
तो बस खिल उठता है तन,
उस भीनी महक से,
और छा जाती है,
अजब सी ताजगी,
कितने रंग होते हैं ना फूलों के,
ऐसा ही एक रंग देखा था कहीं,
कुछ याद नही आ रहा ठीक-ठीक,
हल्का गुलाबी सा,
किसी चौराहे पे शायद,
हाँ, वहीं तो देखा था,
उन नन्हे से हाथों में,
रूखे-बिखरे बालों के झुरमुट में छिपी,
भोली सी आँखेंचमकती हुई,
धीमी सी आवाज़ में,
बड़े मनुहार से मुझसे पुछा था,
दीदी, लो ना -- ले लो न दीदी,
उन आँखों में झांकते हुए,
ख़याल आया मुझे,
काश मैं मांग सकती थोडी सी चमक इनकी,
और थोडी सी बचपन की लापरवाही भी,
थोड़े ही दिनों के लिए बस..उधार में,
और बदले में भर सकती इनके जीवन को,
इन्ही फूलों के रंग से,
दे सकती आशाओं की खुशबू,
और सींचती बगिया, इनके सुनहरे कल की,
यह दिवा-स्वप्न सजा के मैंने
बढाया ही था अपना हाथ,
के अकस्मात् ही चल पड़ी मेरी गाड़ी आगे की ओर,
और वो फूल पीछे ही छूट गए...
Thursday, March 26, 2009
मेरी कविता
Subscribe to:
Posts (Atom)